देवी छिन्नमस्ता साधना

भगवती छिन्नमस्ता का स्वरूप अत्यंत ही गोपनीय है। इसे कोई अधिकारी साधक ही जान सकता है। महाविद्याओं में इनका तीसरा स्थान है। इनके प्रादुर्भाव की कथा इस प्रकार है-एक बार भगवती भवानी अपनी सहचरी जया और विजया के साथ मन्दाकिनी में स्नान करने के लिए गयीं। स्नान के बाद क्षुधाग्नि से पीड़ित होकर वे कृष्णवर्ण की हो गयीं। उस समय उनकी सहचरियों ने भी उनसे कुछ भोजन करने के लिए मांगा।
देवी ने उनसे कुछ समय प्रतीक्षा करने के लिए कहा। थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद सहचरियों ने जब पुनः भोजन के लिए निवेदन किया, तब देवी ने उनसे कुछ देर और प्रतीक्षा करने के लिए कहा। इस पर सहचरियों ने देवी से विनम्र स्वर में कहा कि मां तो अपने शिशुओं को भूख लगने पर अविलम्ब भोजन प्रदान करती है। आप हमारी उपेक्षा क्यों कर रही हैं?
अपने सहचरियों के मधुर वचन सुनकर कृपामयी देवी ने अपने खड्ग से अपना सिर काट दिया। कटा हुआ सिर देवी के बायें हाथ में आ गिरा और उनके कबन्ध से रक्त की तीन धाराएं प्रवाहित हुईं। वे दो धाराओं को अपनी दोनों सहचरियों की ओर प्रवाहित कर दीं, जिसे पीती हुई दोनों प्रसन्न होने लगीं और तीसरी धारा को देवी स्वयं पान करने लगीं। तभी से देवी छिन्नमस्ता के नाम से प्रसिद्ध हुईं।
ऐसा विधान है कि आधी रात अर्थात् चतुर्थ संध्याकाल में छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती सिद्ध हो जाती हैं। शत्रु विजय, समूह स्तम्भन, राज्य प्राप्ति और दुर्लभ मोक्ष प्राप्ति के लिए छिन्नमस्ता की उपासना अमोघ है। छिन्नमस्ता का आध्यात्मिक स्वरूप अत्यन्त महत्वपूर्ण है। छिन्न यज्ञशीर्ष की प्रतीक ये देवी श्वेतकमल पीठ पर खड़ी हैं। दिशाएं ही इनके वस्त्र हैं। इनकी नाभि में योनिचक्र है। कृष्ण (तम) और रक्त(रज) गुणों की देवियां इनकी सहचरियां हैं। ये अपना शीश काटकर भी जीवित हैं। यह अपने आप में पूर्ण अन्तर्मुखी साधना का संकेत है।
विद्वानों ने इस कथा में सिद्धि की चरम सीमा का निर्देश माना है। योगशास्त्र में तीन ग्रंथियां बतायी गयी हैं, जिनके भेदन के बाद योगी को पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है। इन्हें ब्रम्हाग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि तथा रुद्रग्रन्थि कहा गया है। मूलाधार में ब्रम्हग्रन्थि, मणिपूर में विष्णुग्रन्थि तथा आज्ञाचक्र में रुद्रग्रन्थि का स्थान है। इन ग्रंथियों के भेदन से ही अद्वैतानन्द की प्राप्ति होती है। योगियों का ऐसा अनुभव है कि मणिपूर चक्र के नीचे की नाड़ियों में ही काम और रति का मूल है, उसी पर छिन्ना महाशक्ति आरुढ़ हैं, इसका ऊर्ध्व प्रवाह होने पर रुद्रग्रन्थि का भेदन होता है।
छिन्नमस्ता का वज्र वैरोचनी नाम शाक्तों, बौद्धों तथा जैनों में समान रूप से प्रचलित है। देवी की दोनों सहचरियां रजोगुण तथा तमोगुण की प्रतीक हैं, कमल विश्वप्रपंच है और कामरति चिदानन्द की स्थूलवृत्ति है। बृहदारण्यक की अश्वशिर विद्या, शाक्तों की हयग्रीव विद्या तथा गाणपत्यों के छिन्नशीर्ष गणपति का रहस्य भी छिन्नमस्ता से ही संबंधित है। हिरण्यकशिपु, वैरोचन आदि छिन्नमस्ता के ही उपासक थे। इसीलिये इन्हें वज्र वैरोचनीया कहा गया है। वैरोचन अग्नि को कहते हैं। अग्नि के स्थान मणिपूर में छिन्नमस्ता का ध्यान किया जाता है और वज्रानाड़ी में इनका प्रवाह होने से इन्हें वज्र वैरोचनीया कहते हैं। श्रीभैरवतन्त्र में कहा गया है कि इनकी आराधना से साधक जीवभाव से मुक्त होकर शिवभाव को प्राप्त कर लेता है।
श्री महाविद्या छिन्नमस्ता महामंत्र
ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचिनिये ह्रीं ह्रीं फट स्वाहा ॥ एक दिन का साधना है। इस मंत्र को दस हजार जाप करे किँतु 21 माला जाप पुरे होते ही देवी अपना माया देखना आरंभ करती है।अगर मंत्र जाप के मध्य मेँ बिजली काड्क ने की आबाज सुनाई दे तो डरे नही,ईसका अर्थ है साधक के सारे कष्ट का नाश हुआ।मंत्र जाप पुरा करना है किसी भी किमत मेँ और अखीर मेँ देवी दर्शन देगी॥

Comments

Saurabh Singh said…
Kya is sadhana mein koyi khatra to nahi hai
Saurabh Singh said…
Kya is sadhana mein koyi khatra nahi hai na pls batayein
Unknown said…
kripya is mantra ke liye nyaas evam viniyog prastut karen.
Unknown said…
Aadhi adhuri jaankari kyo de rahe ho, saadhna aise hi ho jaati hai kya?? pura vidhi vidhaan nahi pta to logo ko kyo bahka rahe ho. Ye Tamsik saadhnayen hain jrasi chook sadhak ki jaan bhi le sakti hai. bas kahin kisi kitaab se uthakar paste kar diya.
Unknown said…
मेरी नजर में किसी भी मा का (देवी) का विधि विधान किसी जो भी पता नही है सिर्फ मन के भाव से ही देवी की साधना करनी चाहिए और मा किसी का बुरा नही करती है